हमारे परिवार की दूसरी पीढ़ी के हाथों में जब किताब आई तो गणित कभी पल्ले नहीं पड़ा। परिवार में पहली लड़की जॉय केरकेट्टा ही है, गणित जिसका पसंदीदा विषय रहा। बचपन में अपने साथ वह स्कूल के दूसरे मित्रों को भी क्लास के बाद गणित पढ़ाती थी। स्कूल में खुद तो टॉप किया ही अपनी सहेलियों को भी पढ़ा कर उन्हें भी मैट्रिक में प्रथम श्रेणी में खींच लिया। कॉलेज के बाद उसने साल भर सुदूर गांव के स्कूल में बच्चों को पढ़ाया। हमेशा कहती हैं “हम क्या बोलते हैं उससे ज्यादा जोर से बोलता है हम कैसा जीते हैं।” सार्थक जीने पर उसका जोर है। इसलिए अपनी दिनचर्या और प्रयोगिक परीक्षा की तैयारियों के बीच सप्ताह में 3 दिन गांव से शहर आई लड़कियों को डेढ़ घंटे और रविवार को एक दिन 5 घंटे गांव की लड़कियों को गणित पढ़ाती हैं। लड़कियां कहती हैं स्कूल में सामाजिक विज्ञान पढ़ाने वाले गणित भी पढ़ा देते हैं। कुछ समझ नहीं आता। ऐसी परिस्थितियों से वह परेशान हो उठती हैं क्योंकि बूंद बूंद अच्छे प्रयास अंततः समाज में समा जाते हैं और उसे बेहतर बनाते हैं जैसे बूंद बूंद बुरे काम और निष्क्रियता अंततः इस समाज को कमजोर करते हैं।
वह चिंतित होती है कैसे अपनी क्षमता से बच्चों की मदद की जाए। और यह बताया जाय कि जीवन में प्रतिक्रिया करते रहने से भी ज्यादा जरूरी है कि हम कैसे सार्थक जिएं, कुछ बेहतर गढ़ते हुए, कुछ बदलते हुए, ठोस जमीन पर कुछ रचते हुए..।
मैं भी उससे सीखती हूं। मेरे लिए बहन का रिश्ता, दोस्ती में बदलता जा रहा है। आजकल चाय के साथ उससे संवाद की तलब बढ़ती जा रही है……