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Gift A Library

‘Gift A Library’ an initiative by Kutchina Foundation, the brainchild of Nita Bajoria, member of Kutchina Foundation aims at giving or at least providing books to kids and develop the habit of reading. In many affluent families, books that have been already read lie in a corner with no further use. This initiative aims at channelising the book to places where they could be read again, it would help a lot of children get access to the magical world of stories and knowledge.
Through ‘Gift a Library’ – we have been able to collect more than 1500 books within a short span of two and a half months. This first project is in a school near Shyambazar that didn’t have a library.

We have done Masti ki pathshala and our next project is St. Stephen’s School Bowbazar.
Visit Us At : https://www.facebook.com/giftalibrary/

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Queer Pride 2018 Guwahati

Queer Pride 2018 Guwahati
Lots of colour everywhere
A beautiful dream: no restriction on love.
We stand for equality and unity
Rights for all
Equal rights for every human being is our demand…
Long live revolution
Long live the spirit of love

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सशस्त्र सेना में शामिल होने वाली प्रथम महिला

सशस्त्र सेना में शामिल होने वाली प्रथम महिलाओं में एक नीतू भट्टाचार्य जी हैं। जम्मू में सी.आर.पी.एफ की डी.आई.जी पद पर पदस्थापित हैं। कविताएं लिखती हैं। सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय भी हैं। उन्होंने दो तरफा संघर्ष में पिस रही महिलाओं का जीवन करीब से देखा है। ऐसी संस्थायें जो सड़कों पर पड़े बच्चों, विधवाओं के लिये काम करती हैं, वे उनसे जुड़कर उन्हें सहयोग देती हैं। पंजाब और कश्मीर के इर्द गिर्द महिलाओं के जीवन की सच्ची कहानियां उनकी कहानी किताब “हाफ लाइफ” में शामिल हैं। “रेजरेक्शन : अ वुमन रिबोर्न” उनका अंग्रेजी कविता संग्रह है। मुम्बई में मुलाक़ात होने पर उनसे बातचीत हुई। इस दौरान वे झारखंड के चर्चित डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म निर्देशक मेघनाथ और बीजू टोप्पो की फ़िल्म “द हंट” और “नाची से बांची” के बारे जानकर इन्हें देखने को उत्साहित हुई।

कोलकाता इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में इस ह्यूमन राइट फ़िल्म ” द हंट” के लिए बीजू टोप्पो सर को बेस्ट डायरेक्टर का अवार्ड मिलने पर ढेरों शुभकामनाएं…

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दुनिया को स्त्री दृष्टि से भी देखने की जरुरत

(मुंबई में आयोजित गेटवे लिटफेस्ट 2018)

देश भर में चल रहे लिटफेस्ट का मकसद क्या है ? क्या जमीन से उठती रचनाएं पलटकर जमीन तक पहुंचती हैं? कला, साहित्य में सक्रिय महिलाओं के अनुभव क्या हैं? देश में विभिन्न विधा में जमीनी मुद्दों की बात करने वाली, संवेदनाओं से भरी महिलाओं का एकजुट होना क्यों ज़रूरी है? कलाओं में स्त्री-पुरूष का भेद, जात-पात के भेद के क्या खतरे हैं? रचनाकार, कलाकार किन परिस्थितियेां से उठकर अपनी आवाज अपने समाज में बुंलद कर रहे, उसकी कहानी लोगों तक कैसे पहुंचे?
ऐसे ही कई सवालों को लेकर मुंबई में आयोजित तीन दिवसीय गेटवे लिटफेस्ट 2018 में बहस, कविता पाठ, अनुभव बांटने, एक दूसरे को जानने, अलग-अलग क्षेत्र के संघर्षो को समझने, अलग-अलग भाषाओं को सुनने, मतभेदों को रखने और सीमाओं को तोड़ने को लेकर बहस का सिलसिला चला। यह कश्मीर से लेकर केरल तक की 50 महिलाओं का जुटान था। इसमें फिल्म अभिनेत्रियां, फिल्म निर्देशक, फिल्म एडिटर, थियेटर आर्टिस्ट, कवि, लेखिका, उपन्यासकार, कहानिकार, पत्रकार शामिल थी। देश भर से करीब 17 भाषाओं में अपनी बातें प्रतिभागियों ने रखी, इसका अनुवाद हिंदी और अंग्रेजी में किया गया।

लेखन के लिए देह पर साधा जाता है निशाना: शोभा डे

मलयालम फिल्म जगत के हस्ताक्षर, पद्म भूषण, दादा साहेब फाल्के सम्मान से सम्मानित फिल्म निर्देशक अदुर गोपालाकृष्णन ने उद्घाटन सत्र में कहा कि देश में कई महिलाएं कला, साहित्य हर क्षेत्र में अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहीं हैं। यह लिटफेस्ट इस वर्ष उनको एक दूसरे को जानने का अवसर देने का काम करेगा। स्त्रियां जन्म लेने से पहले से ही हाशिए पर डाली जाती रहीं हैं। लेकिन पुरूष और स्त्री दोनों के संयुक्त सहयोग से ही दुनिया बेहतर बन सकती है। चर्चित अभिनेत्री अपर्णा सेन ने अपने लंबे वक्तव्य में फिल्म जगत में महिलाओं की भूमिका पर बात की। कहा कि इस दुनिया को स्त्री की नजर से भी देखें। आज ऐसी जगह बनाने की जरूरत है जहां वे बिना किसी भय के अपने को हर कला में अभिव्यक्त कर सके।
चर्चित स्तंभकार और लेखिका शोभा डे ने कहा कि महिलाओं की सफलता के पीछे हमेशा उनकी देह को निशाना बनाया जाता है। उनके लेखन का श्रेय पुरूषों को दिया जाता है। ऐसी धारणाएं टूटती हैं जब काफी संख्या में बिना डरे, महिलाएं खुद को अभिव्यक्त करना शुरू करती हैं। पद्मश्री ओड़िया लेखिका प्रतिभा राय ने इतिहास के हर मिथक में स्त्रियों की भूमिकाओं को स्त्री दृष्टि से रखकर सबको चमत्कृत किया। मेघालय की खासी आदिवासी समुदाय से आई संपादक, लेखिका, समाजिक कार्यकर्ता पेट्रिशिया मुखिम ने कहा कि आदिवासियों के लिए विकास का अर्थ उनके पहाड़ों, जंगलों, नदियों, जमीन, उनकी भाषा और उनके रहने-सहने के अपने तरीकों का बचा रहना, बरकरार रहना है। क्या तथाकथित विकास आदिवासियों को ऐसे विकास में सहयोग कर सकता है? नहीं कर सकता तो आदिवासी इलाकों में विद्रोह होते रहें हैं और होते रहेंगे। आज आदिवासियों को दूसरों के खुद पर लिखे जाने का इंतजार करने की बजाय खुद कलम उठाकर अपने बारे लिखना होगा।

बांटने के बजाय विशिष्टता के साथ जुड़े रहने की जरूरत

अभिनेत्री व फिल्म निर्देशक नंदिता दास ने कहा कि कलाकार सिर्फ कलाकार होते हैं। उन्हें महिला और पुरूष में बांटकर भेदभाव होना बंद होना चाहिए। बतौर फिल्म निर्देशक वे अपने काम की समीक्षा चाहती हैं न कि उनके स्त्री निर्देशक होने की समीक्षा।
कश्मीर से आई युवा कवि व साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार 2017 से सम्मानित निखत साहिबा और उर्दु फिक्शन लेखिका तरन्नुम रियाज ने अपनी कविताओं से कश्मीर की स्थितियों को रखा। मलयालम, कन्नड़, तमिल, तेलगु, मराठी की वरिष्ठ लेखिकाओं ने कहा कि साहित्य को खमों में न बांटा जाए, चाहे वह दलित साहित्य ही क्यों न हो। साहित्य के भीतर जात-पात हो तब समाज के भीतर जाति के बंधनों को तोड़ने की बात करना बेमानी है। वंचित तबके के लोग अपनी विशिष्ट पृष्ठभूमि के कारण अपनी विशिष्ट प्रखर आवाज रखते हैं। ये साहित्य के मूल स्वर हैं और अपनी विशिष्टता के साथ साहित्य में रहें और एक साथ रहें।
झारखंड की युवा कवि जसिन्ता केरकेट्टा ने अपनी लेखन प्रक्रिया पर बात करते हुए कहा कि लिखते हुए भी ज़मीन पर काम करने की ज़रूरत है। झारखंड में तथाकथित विकास और उसकी तैयारियों के खिलाफ चल रहे जमीनी संघर्षो का जिक्र किया। जल, जंगल, ज़मीन के साथ ज़ुबान और ज़मीर बचाने के संघर्ष की बात की। अपनी कविताएं सुनाते हुए देश भर में चल रहे ऐसे संघर्षो से लोगों को जुड़ने, जानने और एकजुट होने की बात कही। तहलका मैगज़ीन से पूर्व में जुड़ी जुझारू पत्रकार राणा अयुब ने अपनी किताब ” गुजरात फाइल्स ” के बहाने अपनी खोजी पत्रकारिता के अनुभव साझा किए। कहा इस देश में क्रिमिनल को क्रिमिनल कहने की क़ीमत चुकानी पड़ती है। और जिन्हें ऐसे समय में साहस दिखाना चाहिये वे उनके द्वारा परोसी गई भाषा बोल रहें हैं

साहित्य पढ़ा नहीं जिया जिन्होंने

कई युवा रचनाकार देश के सुदूर इलाकों से निकल कर आ रहीं, जहां उन्हें कोई नहीं जानता कि वे लिखती हैं। ऐसी युवा रचनाकारों ने बताया कि उन्होंने साहित्य कभी नहीं पढ़ा। लिखने के बाद अब पढ़ना शुरू किया। ऐसी रचनाकारों ने कहा साहित्य किताब नहीं जीवन मांगता है। जीवन जीए बिना धार नहीं। शब्दों की जुगाली बहुत हो रही। जीवन जीने वाला साहित्य ही लोगों के काम आएगा।
“आलो अंधारी” नाम से अपनी आत्मकथा द्वारा दुनिया भर में चर्चे में आई लेखिका बेबी हलदर को लिटफेस्ट के ईयर आफ द अवार्ड से सम्मानित किया गया। जीवन भर कई किताबों का मलयालम में अनुवाद करने वाली वरिष्ठ अनुवादक लीला सरकार को अवार्ड फाॅर एक्सिलेंसी दिया गया।

तीन लड़कियां, तीन घंटे, मंच पर जीया “आयदान” को

फेस्ट में तीन दिन फिल्म, कविता, कहानी, थियेटर, पत्रकारिता पर कुल 9 पैनल डिस्कशन के सत्र हुए दो सत्र कविता पाठ के रहे। अलग-अलग भाषा में अपनी कृति के लिए साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार 2017 पाने वाले छहः युवा रचनाकारों ने अपनी भाषा में अपने अनुभव बांटे। उर्मीला पवार की आत्मकथा पर तैयार आयदान ड्रामा सुष्मिता देशपांडे और उनकी टीम द्वारा दिखाया गया। साढे तीन घंटे तीन लड़कियों को सारे संवाद बोलते हुए, अभिनय करते हुए, पल-पल अलग-अलग पात्र में खुद को बदलते हुए देखना अद्भुत था। हर सत्र ने लोंगो को छुआ। वे उठ कर वक्ताओं को घेरते और उनके ओटोग्राफ़ लेते, बातें करते और अपनी प्रतिक्रिया देते। हर सत्र में काफी संख्या में मुंबई के विभिन्न यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी, कला- साहित्य प्रेमी, युवा फिल्म निर्देशक और आम लोग मौजूद रहे।

इस फेस्ट को मार्गदर्शन देने में अपनी भूमिका निभाने वालों में फिल्म निर्देश्क अदुर गोपालाकृष्णन, बांग्ला कवि सुबोध सरकार, वरिष्ठ गुजराती कवि शितांशु यश्सचंद्रा,वरिष्ठ मलयालम कवि के. सचिदानंद, चर्चित मराठी उपन्यासकार लक्ष्मण गायकवाड़, मराठी कवि, अनुवादक सचिन केटकर, संपादक एस प्रसन्नाराजन, अंतराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित पेंटर बोस कृष्णामचारी, फिल्म सोसाईटी मूवमेंट में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली लेखिका उमा दा चुन्हा, द हिंदू के एसोसिएट एडिटर और ब्यूरो चीफ गौरिदासन नायर शामिल हैं।
गेटवे लिटफेस्ट के आयोजक मंडली में कृशिल ग्लोबल रिसर्च के संपादक मोहन काकानाडन, वरिष्ठ बिजनेस जर्नलिस्ट एम साबरीनाथ, पैशन फाॅर कम्युनिकेशन के सीईओ और लिटफेस्ट का आइडिया लाने वाले जोसेफ एलेक्जेंडर, प्रेस ट्रस्ट आॅफ इंडिया, मुंबई के बिजनेस ब्यूरो के चीफ केजे बेनेचान, इंडिया टुडे के थाॅमशन प्रेस के कंट्री मैनेजर के रूप में काम कर चुके सुरेंद्र बाबू, इंटलेक्जुअल पोपर्टी राईट के विशेषज्ञ अधिवक्ता एवी गोपालाकृष्णन, 150 से अधिक ड्रामा में अभिनय करने और मुंबई स्थित कई थियेटर्स का हिस्सा रहे पी बालाकृष्णन, मलयालम मैग्जीन काक्का से जुड़े वीकेएस मेनन , एनिमेटर जीनो, फेस्ट कॉर्डिनेटर उन्नी मेनन,और अन्य लोग शामिल हैं।

रिपोर्ट – जसिन्ता केरकेट्टा
मुंबई से लौटकर

 

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Women Empowerment

Women Empowerment-a term so frequently used in today’s times has lost its relevance with reference to the actual sense of the term. The notion that such a term refers to just matters like educating the girl child, equality in matters of employment, inheritance, marriage, politics etc requires serious reconsideration. This is because ‘Women Empowerment’ nowadays is being just used as a phrase limited by these keywords.

            Empowerment is a psychological process in which individuals think positively about their ability to bring a change and gain mastery over various issues at individual & social levels. This includes the notion of self efficacy i.e perceptions of competence, personal control & positive self image. Hence Women Empowerment in its totality must be guided by this basic aspect across areas of education, politics, economics etc.

            In our country despite the presence of so many legislation, government schemes & CSR initiatives, do women really feel empowered in the sense that they are being equally treated by men in all spheres of life & whether they are able to manifest their feminine energies is the real question. Such a doubt arises because despite statistics showing the better academic performance of girls compared to boys in secondary & higher secondary examinations; women getting more degrees & jobs & their increasing role as consumers, entrepreneurs, investors etc,  their share in the total workforce of the country is still very low. This is because the paternalistic attitude of the male population has not yet undergone much change. The current pattern shows both partners working outside home but not sharing housework & child care equally. There are instances where highly qualified women with a great pay are having to quit their job for family reasons.

            Women Empowerment currently requires redressal of these issues which includes bringing both men & women into the fold of empowerment so that women in our country are no longer hesitant or apologetic about claiming a share & visibility within the family, at work & in the public discourse.

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वीर बिरसा मुंडा

गांव के बच्चों ने कहा वे वीर बिरसा मुंडा के बारे नहीं जानते हैं। उन्हें कभी किसी ने इस बारे नहीं बताया। वे उनके बारे जानना चाहते हैं। आज हम खूंटी स्थित साइल रकब ( डोंबारी बुरू) पहुंचे। इसी पहाड़ पर बिरसा मुंडा और उनके बिरसइतों ने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ा था। लड़ते हुए कई लोग शहीद हुए थे। इस संघर्ष में स्त्रियां और बच्चे भी शामिल थे और उन्होंने भी अपनी शहादत दी। उनकी स्मृति में एक स्मारक पहाड़ पर खड़ा है। यह दूर से ही दिखता है।
वीर बिरसा मुंडा के जीवन और संघर्ष की कहानी सुनकर बच्चे भाव विह्वल हो गए। पूरे पहाड़ पर अलग अलग अकेले बैठकर उन्होंने उस कहानी में डूबने की कोशिश की। अपने लिए भी कोई शक्ति मांगते हुए अपना वक्त बिताया। उन्होंने घंटो जंगल से बात की, जी भर उन्हें निहारा और एकांत में उन्हें सुनने की कोशिश की। गांव की स्त्रियां दूसरे पहाड़ों पर गीत गाती हुई गुजर रहीं थीं। बच्चों ने कहा यह ऊर्जा से भरने वाली अद्भुत जगह है।
पहाड़ पर हमने साथ कुछ खाया, अपनी भावनाएं बांटी, सपने बांटे और भीतर ही भीतर कुछ नए संकल्प किए।
फिर बच्चे वीर बिरसा मुंडा की जन्मस्थली देखने उलिहातु गए। बच्चों ने पूरे गांव का दौरा किया। पत्थर से बने घरों को छू कर देखा और नोट्स बनाए। अब वे अपनी डायरी लिखेंगे। उन्होंने कहा ये उनके जीवन में अब तक का सबसे यादगार पल था। लौटते हुए वे बोले अब वे अपने माता पिता से वीर बिरसा मुंडा के बारे पूछेंगे और उनके नहीं जानने पर उन्हें बताएंगे।
जॉय केरकेट्टा ने पूरी यात्रा में बच्चों का ध्यान रखा। गांव की लड़कियों के इस दल का नाम हमने “बीहन” रखा है। बीहन अर्थात अच्छी फसल के लिए बचाए गए बीज। इन उम्मीदों के नए बीजों के साथ इस तरह की यात्रा का यह मेरा पहला अनुभव रहा।

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हमारे परिवार की दूसरी पीढ़ी के हाथों में जब किताब आई तो गणित कभी पल्ले नहीं पड़ा

हमारे परिवार की दूसरी पीढ़ी के हाथों में जब किताब आई तो गणित कभी पल्ले नहीं पड़ा। परिवार में पहली लड़की जॉय केरकेट्टा ही है, गणित जिसका पसंदीदा विषय रहा। बचपन में अपने साथ वह स्कूल के दूसरे मित्रों को भी क्लास के बाद गणित पढ़ाती थी। स्कूल में खुद तो टॉप किया ही अपनी सहेलियों को भी पढ़ा कर उन्हें भी मैट्रिक में प्रथम श्रेणी में खींच लिया। कॉलेज के बाद उसने साल भर सुदूर गांव के स्कूल में बच्चों को पढ़ाया। हमेशा कहती हैं “हम क्या बोलते हैं उससे ज्यादा जोर से बोलता है हम कैसा जीते हैं।” सार्थक जीने पर उसका जोर है। इसलिए अपनी दिनचर्या और प्रयोगिक परीक्षा की तैयारियों के बीच सप्ताह में 3 दिन गांव से शहर आई लड़कियों को डेढ़ घंटे और रविवार को एक दिन 5 घंटे गांव की लड़कियों को गणित पढ़ाती हैं। लड़कियां कहती हैं स्कूल में सामाजिक विज्ञान पढ़ाने वाले गणित भी पढ़ा देते हैं। कुछ समझ नहीं आता। ऐसी परिस्थितियों से वह परेशान हो उठती हैं क्योंकि बूंद बूंद अच्छे प्रयास अंततः समाज में समा जाते हैं और उसे बेहतर बनाते हैं जैसे बूंद बूंद बुरे काम और निष्क्रियता अंततः इस समाज को कमजोर करते हैं।
वह चिंतित होती है कैसे अपनी क्षमता से बच्चों की मदद की जाए। और यह बताया जाय कि जीवन में प्रतिक्रिया करते रहने से भी ज्यादा जरूरी है कि हम कैसे सार्थक जिएं, कुछ बेहतर गढ़ते हुए, कुछ बदलते हुए, ठोस जमीन पर कुछ रचते हुए..।
मैं भी उससे सीखती हूं। मेरे लिए बहन का रिश्ता, दोस्ती में बदलता जा रहा है। आजकल चाय के साथ उससे संवाद की तलब बढ़ती जा रही है……

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